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तुम्हारी आँखें / श्वेता राय

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तुम्हारी आँखें
गांडीव की चढ़ी हुई प्रत्यंचा है
जो बिना भेदे लक्ष्य को
ढीली नही होतीं

यहीं से
निकलते हैं
कामदेव के बाण
जो जानते हैं भेदना हृदय को

इन्होंने चन्द्र कला से सीखा है लूटते हुए लुट जाने की कारीगरी

गढ़ते हुए कई मरुभ्रम
ये पोषित करती हैं मधु छल को
और भोगती हैं
स्वर्ग का सुख तब,
जब ये सूद के एवज में आँखों के ही द्वारा जाती हैं छली

शून्य का भार वहन किये
ये बनाती हैं पलकों को तुला
जिनपर तौल कर मौसमो को,
ये मतिभ्रम से बनाती हैं द्वार, निर्गुण मन तक जाने का

ये मोहननगर की तरह
दूसरे के विवेक क्षेत्र में रचती हैं वैभवशाली तिलिस्म

अद्भभुत
अप्रतिम

जिस स्त्री ने नही देखा इनके भीतर
वो क्या जाने
इनमे डूब के पार होने का रहस्य...

【पुरुष सौंदर्य】