भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी आँखों में / सुशीला पुरी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:41, 23 जून 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुशीला पुरी |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem> तुमने पलाश का द…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुमने पलाश का
दहकना नहीं देखा
ऐसा तुम कहते हो

हवा में कब घुली सुगंध
कब वसंत ने द्वार खटखटाया
कब भर गई साँसों में धुन
पत्थर-प्राणों में कब हुई सिहरन
तुमने देखा न हो
ये असम्भव है

मैंने देखी है तुम्हारी आँखों में
ख़ुशबू की असीमित दुनिया
धुनों में पगा सरगम
महक पूरी समग्रता से
उतर चुकी है तुम्हारी आत्मा में

मुक्तिबोध के शब्दों में
अभिव्यक्ति के खतरे उठाते हुए
रंगों ने ओढी है छुअन
तोडा है गढ़ और मठ ।