भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारी बेसुधी / शैलजा पाठक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आती है तुम्हारे होने की गंध
रात के तीसरे पहर में

मेरी देह पर
उगते हैं तुम्हारे नाख़ून

टीसते जख्म को सुलाती हूं
पलकों के किवाड जोर से लगाती हूं

रौदें सपनों को
सहला जाती है भोर की ओस

मैंने पहन लिया है नया सवेरा
तुम रोज जैसे बेसुध हो अबतक...