भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है / साबिर
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ३ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:35, 8 अक्टूबर 2013 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=साबिर }} {{KKCatGhazal}} <poem> तुम्हारे आलम से म...' के साथ नया पन्ना बनाया)
तुम्हारे आलम से मेरा आलम ज़रा अलग है
हो तुम भी ग़म-गीं मगर मिरा ग़म ज़रा अलग है
यहाँ पे हँसना रवा है रोना है बे-हयाई
सुक़ूत-ए-शहर-ए-जुनूँ का मातम ज़रा अलग है
खुलेंगे शाखों के राज़ अहल-ए-चमन पर अब के
गिरह गिरह से उलझती शबनम ज़रा अलग है
तिरे तसव्वुर की धूप ओढ़े खड़ा हूँ छत पर
मिरे लिए सर्दियों का मौसम ज़रा अलग है
ज़रा सा बदला हुआ है तर्ज़-ए-कलाम ‘साबिर’
वही पुराने हैं लफ़्ज़ दम-ख़म ज़रा अलग है