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"तुम्हारे ख़िलाफ / बाल गंगाधर 'बागी'" के अवतरणों में अंतर

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ये सदायें  फ़िजायें  ये काली घटायें
 
जो रोती थीं दम भर के अक्सर बतायें
 
जो रोती थीं दम भर के अक्सर बतायें
 
आंचल में छिप-छिप के रोयी हुई थीं
 
आंचल में छिप-छिप के रोयी हुई थीं
बस दिल में तमन्ना3 संजोई हुई थीं
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बस दिल में तमन्ना  संजोई हुई थीं
  
हुई माँ व बहनों की अस्मतदरी4 थी
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हुई माँ व बहनों की अस्मतदरी थी
 
जो नंगी सभा में घुमायी गयीं थीं
 
जो नंगी सभा में घुमायी गयीं थीं
 
मज़बूर व मज़दूर था जिनको बनाया
 
मज़बूर व मज़दूर था जिनको बनाया
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तो सदा आह भरने से कुछ भी न होगा
 
तो सदा आह भरने से कुछ भी न होगा
 
अब ख़ामोश रहने से भी कुछ न होगा
 
अब ख़ामोश रहने से भी कुछ न होगा
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1. आवाजें  2. वातावरण 3. इच्छा   4. रेप
 
  
 
बग़ावत के अलावा कोई और चारा नहीं है
 
बग़ावत के अलावा कोई और चारा नहीं है
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लगी आग दिल मंे अब बुझ न सकेगी
 
लगी आग दिल मंे अब बुझ न सकेगी
 
मनु तेरी बस्ती अब बच न सकेगी
 
मनु तेरी बस्ती अब बच न सकेगी
जलाऊंगा तुझे और घर तेरे सारे
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जलाऊँगा तुझे और घर तेरे सारे
 
फसादों की जड़ें हैं जो तेरे पास सारे
 
फसादों की जड़ें हैं जो तेरे पास सारे
  
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होंगी फिर से ज़िन्दा तहजीवें हमारी
 
होंगी फिर से ज़िन्दा तहजीवें हमारी
 
है तुम्हारे ख़िलाफ अब बग़ात हमारी....
 
है तुम्हारे ख़िलाफ अब बग़ात हमारी....
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(जनवरी 2011, जेएनयू)
 
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17:01, 22 अप्रैल 2019 के समय का अवतरण

ये सदायें फ़िजायें ये काली घटायें
जो रोती थीं दम भर के अक्सर बतायें
आंचल में छिप-छिप के रोयी हुई थीं
बस दिल में तमन्ना संजोई हुई थीं

हुई माँ व बहनों की अस्मतदरी थी
जो नंगी सभा में घुमायी गयीं थीं
मज़बूर व मज़दूर था जिनको बनाया
मुफ्त में हर इक काम जिनसे कराया

थी उमड़ती घटाओं की बारिश होती
मेरी माँ जब सर पटक कर थी रोती
था भगवान खुश उसके बंदे भी सारे
जलायी थी जब बस्तियों को हमारे

अहिंसा हमारा था दुनिया से न्यारा
चमकता मेरे घर का रौशन सितारा
सदियों से यह मेरे बड़ों की कमाई
मनुवादियों ने थी जिनको जलायी

जले घर के दौलत व अरमान सारे
मुकद्दर पे रोयें हम थके बेसहारे
यही हाल सारे दलित पर थी भारी
कि निकले उम्मीदों की कोई सवारी

दलित बस्तियों में थी बीरानी कैसी?
था विधवा का गम व नदी आंसुओं की
तो सदा आह भरने से कुछ भी न होगा
अब ख़ामोश रहने से भी कुछ न होगा

बग़ावत के अलावा कोई और चारा नहीं है
यहाँ कोई अपना हमारा नहीं हैं
लगी आग घर की अब बुझ तो गई है
लगी आग डर की बुझ अब गई है

लगी आग दिल मंे अब बुझ न सकेगी
मनु तेरी बस्ती अब बच न सकेगी
जलाऊँगा तुझे और घर तेरे सारे
फसादों की जड़ें हैं जो तेरे पास सारे

जलाऊंगा तुझे तेरा इतिहास सारा
यह ललकार कहता कारवां हमारा
होंगी फिर से ज़िन्दा तहजीवें हमारी
है तुम्हारे ख़िलाफ अब बग़ात हमारी....

(जनवरी 2011, जेएनयू)