भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे ख़िलाफ / बाल गंगाधर 'बागी'

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ४ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:58, 22 अप्रैल 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=बाल गंगाधर 'बागी' |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ये सदायें1 फ़िजायें2 ये काली घटायें
जो रोती थीं दम भर के अक्सर बतायें
आंचल में छिप-छिप के रोयी हुई थीं
बस दिल में तमन्ना3 संजोई हुई थीं

हुई माँ व बहनों की अस्मतदरी4 थी
जो नंगी सभा में घुमायी गयीं थीं
मज़बूर व मज़दूर था जिनको बनाया
मुफ्त में हर इक काम जिनसे कराया

थी उमड़ती घटाओं की बारिश होती
मेरी माँ जब सर पटक कर थी रोती
था भगवान खुश उसके बंदे भी सारे
जलायी थी जब बस्तियों को हमारे

अहिंसा हमारा था दुनिया से न्यारा
चमकता मेरे घर का रौशन सितारा
सदियों से यह मेरे बड़ों की कमाई
मनुवादियों ने थी जिनको जलायी

जले घर के दौलत व अरमान सारे
मुकद्दर पे रोयें हम थके बेसहारे
यही हाल सारे दलित पर थी भारी
कि निकले उम्मीदों की कोई सवारी

दलित बस्तियों में थी बीरानी कैसी?
था विधवा का गम व नदी आंसुओं की
तो सदा आह भरने से कुछ भी न होगा
अब ख़ामोश रहने से भी कुछ न होगा
- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -
1. आवाजें 2. वातावरण 3. इच्छा 4. रेप

बग़ावत के अलावा कोई और चारा नहीं है
यहाँ कोई अपना हमारा नहीं हैं
लगी आग घर की अब बुझ तो गई है
लगी आग डर की बुझ अब गई है

लगी आग दिल मंे अब बुझ न सकेगी
मनु तेरी बस्ती अब बच न सकेगी
जलाऊंगा तुझे और घर तेरे सारे
फसादों की जड़ें हैं जो तेरे पास सारे

जलाऊंगा तुझे तेरा इतिहास सारा
यह ललकार कहता कारवां हमारा
होंगी फिर से ज़िन्दा तहजीवें हमारी
है तुम्हारे ख़िलाफ अब बग़ात हमारी....
(जनवरी 2011, जेएनयू)