भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हारे चीख़ने से / रजनी तिलक

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारे चीख़ने-चिल्लाने से
मेरा मॉरल थोड़ा डाउन ज़रूर हुआ था
मैं बिख़रने लगी
मेरी आँखें नहीं दिल रोया था

मैंने थोड़ा सोचा फिर
मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया
छोटी समझकर

तुम्हारी नज़रों में नाराज़गी नहीं,
बेअदबी देखी
तुम्हारे अन्दर घुटन नहीं,
बिलबिलाती महत्वाकाँक्षा देखी
अपने प्रति प्यार नहीं, ईर्ष्या देखी
रिश्ते में लगी दीमक देखी

लो अब गुज़रो जिस भी डगर से
मैंने वापसी ले ली
करो प्रतिस्पर्धा मुझसे, ईर्ष्या नहीं
तुम्हारे लिए राह छोड़ दी
करना है कुछ जीवन में
पहले अपना उत्सर्ग करना पड़ता है।

किसी पर आरोप लगाने से पहले
अपना अक्स भी झाँककर देख लो
पाने के लिए दुनिया है
अपना भी कुछ लुटाना पड़ता है

तुम्हारे रूठने झगड़े से
मुझे आपत्ति नहीं थी
तुम्हारे तेवर से मुझे आपत्ति है
टूटकर बिखर गए रिश्ते

अपने अहम देखो
अपनी शौहरत के लिए
मुझे दागदार बनाया

तुम्हें आगे बढ़ना है
शान से आगे बढ़ो
तुम मुक्त हो आजाद हो
दुनिया तुम्हारी है
अपनी आँचल का छोर तो बढ़ाओ ।