"तुम्हारे बिना आरती का दीया यह / गोपालदास "नीरज"" के अवतरणों में अंतर
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− | न | + | दिए से किरन फूटना ही उचित है, |
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+ | विधुर सांस का टूटना ही उचित है, | ||
+ | इसी द्वंद्व में रात का यह मुसाफिर | ||
+ | न रुक पा रहा है, न चल पा रहा है। | ||
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− | + | न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। | |
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− | + | मिलन ने कहा था कभी मुस्करा कर | |
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+ | मगर कह रहा है विरह अब सिसक कर | ||
+ | झरा रात-दिन अश्रु के शव उठाओ, | ||
+ | इसी से नयन का विकल जल-कुसुम यह | ||
+ | न झर पा रहा है, न खिल पा रहा है। | ||
− | + | तुम्हारे बिना आरती का दिया यह | |
− | + | न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। | |
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− | + | कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी की | |
− | न | + | किरन-उंगलियों को छुए बिना जला हो? |
+ | बिना प्यार पाए किसी मोहिनी का | ||
+ | कहाँ है पथिक जो निशा में चला हो! | ||
+ | अचंभा अरे कौन फिर जो तिमिर यह | ||
+ | न गल पा रहा है, न ढल पा रहा है। | ||
− | + | तुम्हारे बिना आरती का दिया यह | |
− | + | न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। | |
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− | तुम्हारे बिना आरती का दिया यह | + | |
− | न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। | + | |
− | किसे है पता धूल के इस नगर में | + | किसे है पता धूल के इस नगर में |
− | कहाँ मृत्यु वरमाल लेकर खड़ी है? | + | कहाँ मृत्यु वरमाल लेकर खड़ी है? |
− | किसे ज्ञात है प्राण की लौ छिपाए | + | किसे ज्ञात है प्राण की लौ छिपाए |
− | चिता में छुपी कौन-सी फुलझड़ी है? | + | चिता में छुपी कौन-सी फुलझड़ी है? |
− | इसी से यहाँ राज हर जिंदगी का | + | इसी से यहाँ राज हर जिंदगी का |
− | न छुप पा रहा है, न खुल पा रहा है। | + | न छुप पा रहा है, न खुल पा रहा है। |
− | तुम्हारे बिना आरती का दिया यह | + | तुम्हारे बिना आरती का दिया यह |
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। | न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है। | ||
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21:10, 2 जुलाई 2015 के समय का अवतरण
तुम्हारे बिना आरती का दीया यह
न बुझ पा रहा है न जल पा रहा है।
भटकती निशा कह रही है कि तम में
दिए से किरन फूटना ही उचित है,
शलभ चीखता पर बिना प्यार के तो
विधुर सांस का टूटना ही उचित है,
इसी द्वंद्व में रात का यह मुसाफिर
न रुक पा रहा है, न चल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
मिलन ने कहा था कभी मुस्करा कर
हँसो फूल बन विश्व-भर को हँसाओ,
मगर कह रहा है विरह अब सिसक कर
झरा रात-दिन अश्रु के शव उठाओ,
इसी से नयन का विकल जल-कुसुम यह
न झर पा रहा है, न खिल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
कहाँ दीप है जो किसी उर्वशी की
किरन-उंगलियों को छुए बिना जला हो?
बिना प्यार पाए किसी मोहिनी का
कहाँ है पथिक जो निशा में चला हो!
अचंभा अरे कौन फिर जो तिमिर यह
न गल पा रहा है, न ढल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।
किसे है पता धूल के इस नगर में
कहाँ मृत्यु वरमाल लेकर खड़ी है?
किसे ज्ञात है प्राण की लौ छिपाए
चिता में छुपी कौन-सी फुलझड़ी है?
इसी से यहाँ राज हर जिंदगी का
न छुप पा रहा है, न खुल पा रहा है।
तुम्हारे बिना आरती का दिया यह
न बुझ पा रहा है, न जल पा रहा है।