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तुम्हें शायद पता न हो ! / ऋतु त्यागी

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तुम्हें शायद पता न हो !
पर मुझे
तुम्हारी बरसती आँखों से इश्क है
जब तुम रोती हो
तो मैं ख़ुद को मज़बूत पाता हो
क्योंकि तब मेरा कंधा सरककर
एक वृक्ष बन जाता है
और मैं देखता हूँ
कि तुम उस पर सिर पर टिकाकर
एक छोटी बच्ची बन जाती हो
उस समय
तुम्हारी उनींदी पलकों में नाचते हैं सपने
तब मैं बादल बनकर
भीतर ही भीतर बरस रहा होता हूँ ।
जानती हो
तुम्हें शायद पता न हो !
मुझे तुम्हे
सलाहों के गुलदस्तें भेजना
बहुत पसंद है
जिन्हें तुम अपने घर के
उदास कोनो में सजा लेती हो
उस समय मुझे तुम्हारे घर में
चुपके से दाख़िल होकर
उनकी महक से
सराबोर होना बहुत पसंद है।
सुनो !
आज तुम्हें एक राज़ बताऊँ
जो शायद
तुम्हें पता न हो
आजकल मुझे तुम्हारा ख़ुद फ़ैसले लेना
और हँसते हुए
मेरी सलाहों के गुलदस्ते को
एक कोने में सरका देना
बिलकुल पसंद नहीं है
उस समय मैं
बादल की तरह फटता हूँ
और अपने ही सैलाब में डूब जाता हूँ।