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|रचनाकार=कुमार विश्वास
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ओ कल्पव्रक्ष की सोनजुही!
ओ अमलताश की अमलकली!
धरती के आतप से जलते...
मन पर छाई निर्मल बदली...
मैं तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार नहीं दे पाऊँगा|
तुम मुझको करना माफ तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||
तुम कल्पव्रक्ष की सोनजुही!<br>ओ अमलताश की अमलकली!<br>का फूल औरमैं धरती का अदना गायकतुम जीवन के आतप से जलते..<br>उपभोग योग्यमन मैं नहीं स्वयं अपने लायकतुम नहीं अधूरी गजल शुभेतुम शाम गान सी पावन होहिम शिखरों पर छाई निर्मल बदलीसहसा कौंधीबिजुरी सी तुम मनभावन हो..<br>मैं तुमको मधुसदगन्ध युक्त संसार इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार नहीं दे पाऊँगा|<br>तुम मुझको करना माफ तुम्हे तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||<br>
तुम कल्पव्रक्ष का फूल और<br>जिस शय्या पर शयन करोमैं धरती वह क्षीर सिन्धु सी पावन होजिस आँगन की हो मौलश्रीवह आँगन क्या वृन्दावन होजिन अधरों का अदना गायक<br>चुम्बन पाओतुम जीवन के उपभोग योग्य<br>मैं वे अधर नहीं स्वयं अपने लायक<br>गंगातट होंतुम जिसकी छाया बन साथ रहोवह व्यक्ति नहीं अधूरी गजल शुभे<br>तुम शाम गान सी पावन वंशीवट हो<br>हिम शिखरों पर सहसा कौंधी<br>बिजुरी सी तुम मनभावन हो.<br>इसलिये व्यर्थ शब्दों वाला व्यापार मैं वट जैसा सघन छाँह विस्तार नहीं दे पाऊँगा|<br>तुम मुझको करना माफ तुम्हे तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||<br>
तुम जिस शय्या पर शयन करो<br>वह क्षीर सिन्धु सी पावन हो<br>जिस आँगन की हो मौलश्री<br>वह आँगन क्या वृन्दावन हो<br>जिन अधरों का चुम्बन पाओ<br>वे अधर नहीं गंगातट हों<br>जिसकी छाया बन साथ रहो<br>वह व्यक्ति नहीं वंशीवट हो<br>पर मैं वट जैसा सघन छाँह विस्तार नहीं दे पाऊँगा|<br>तुम मुझको करना माफ तुम्हे मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||<br> मै तुमको चाँद सितारों का<br>सौंपू उपहार भला कैसे<br>मैं यायावर बंजारा साधू<br>सुर श्रंगार श्रृंगार भला कैसे<br>मैन जीवन के प्रश्नों से नाता तोड तुम्हारे साथ शुभे<br>बारूद बिछी धरती पर कर लूँ<br>दो पल प्यार भला कैसे<br>इसलिये विवष विवश हर आँसू को सत्कार नहीं दे पाऊँगा|<br>तुम मुझको करना माफ तुम्हे तुम्हें मैं प्यार नहीं दे पाऊँगा||<br>
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