भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम्हे याद हो के ना याद हो / मोमिन

Kavita Kosh से
Irfan (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:55, 7 मार्च 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वो जो हम में तुम में क़रार था तुम्हें याद हो के न याद हो
वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो के न याद हो


वो नये गिले वो शिकायतें वो मज़े-मज़े की हिकायतें
वो हर एक बात पे रूठना तुम्हें याद हो के न याद हो


कोई बात ऐसी अगर हुई जो तुम्हारे जी को बुरी लगी
तो बयाँ से पहले ही भूलना तुम्हें याद हो के न याद हो


सुनो ज़िक्र है कई साल का, कोई वादा मुझ से था आप का
वो निबाहने का तो ज़िक्र क्या, तुम्हें याद हो के न याद हो


कभी हम में तुम में भी चाह थी, कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आश्ना, तुम्हें याद हो के न याद हो


हुए इत्तेफ़ाक़ से गर बहम, वो वफ़ा जताने को दम-ब-दम
गिला-ए-मलामत-ए-अर्क़बा, तुम्हें याद हो के न याद हो


वो जो लुत्फ़ मुझ पे थे पेश्तर, वो करम के था मेरे हाल पर
मुझे सब है याद ज़रा-ज़रा, तुम्हें याद हो के न याद हो


कभी बैठे सब में जो रू-ब-रू तो इशारतों ही से गुफ़्तगू
वो बयान शौक़ का बरमला तुम्हें याद हो के न याद हो


किया बात मैं ने वो कोठे की, मेरे दिल से साफ़ उतर गई
तो कहा के जाने मेरी बाला, तुम्हें याद हो के न याद हो


वो बिगड़ना वस्ल की रात का, वो न मानना किसी बात का
वो नहीं-नहीं की हर आन अदा, तुम्हें याद हो के न याद हो


जिसे आप गिनते थे आशना जिसे आप कहते थे बावफ़ा
मैं वही हूँ "मोमिन"-ए-मुब्तला तुम्हें याद हो के न याद हो