भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम आज़ाद हो / विश्वासी एक्का

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:06, 19 मई 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोयल ! तुम कूक सकती हो
क्या गर्मी क्या बरसात ।

आम की डालियाँ ही नहीं
हर वो पेड़ जो
झूमने लगता है
हवा के संग
फूलों से, फलों से लद जाता है
जी लेता है सम्पूर्णता का जीवन ।

तुम्हारे मधुरम गीतों में
भरा है जीवन का राग
तुम आज़ाद हो ।

गाओ खूब गाओ
तुम्हें तो पता है
बसन्त कभी ख़त्म नहीं होता ।