भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम किसी तौर किसी शक्ल नहीं कर सकते / राज़िक़ अंसारी

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:45, 27 जनवरी 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राज़िक़ अंसारी }} {{KKCatGhazal}} <poem> तुम किस...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम किसी तौर किसी शक्ल नहीं कर सकते
इस ज़मीं से मुझे बे-दख़्ल नहीं कर सकते

ठीक है आप मिरी जान तो ले सकते हैं
मेरी आवाज़ मगर क़त्ल नहीं कर सकते

तुझ को नुक़सान तो पहुुँचाना बहुत दूर की बात
तेरी तस्वीर को बद-शक्ल नहीं कर सकते

शेर कहने का सलीक़ा है बहुत बाद की बात
ठीक से हम तो अभी नक़्ल नहीं कर सकते

ऐसे हालात में हम दिल को तलब करते हैं
फ़ैसला रख के जहाँ अक़्ल नहीं कर सकते