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तुम क्या जानो हमने क्या क्या दर्द सहे / विनय मिश्र

तुम क्या जानो हमने क्या-क्या दर्द सहे मुसकाने में ।
बरसों बंजर खेत रहे हैं अपनी फ़सल उगाने में ।
 
डर का मतलब वही नहीं है जो फैला है जंगल में,
अपने भीतर के ख़तरे हैं बाहर के वीराने में ।
 
हमने समझा साथ हमारे एक दिशा है पश्चिम भी,
बड़े-बड़े सूरज डूबे हैं जिसकी थाह लगाने में ।
 
बहुत दूर तक कुछ बदला हो ऐसा हमें नहीं लगता,
वही सियासत शामिल है हर ख़ौफ़जदा अफ़साने में ।
 
इनके भीतर जगर-मगर थे दीप कई आशाओं के,
वर्ना पत्थर हो जाते आँसू जाने-अनजाने में ।
 
प्यास बुझाने की ख़ातिर तो बादल होना बेहतर है,
इक दरिया जब सूख गया हो प्यासे को समझाने में ।
 
जीने की उम्मीदें जब तक ज़िन्दा हैं, हम ज़िन्दा हैं,
अपना सब कुछ मर जाएगा सपनों के मर जाने में ।