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तुम क्या हो / कविता भट्ट

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सँजोया था मन में मैंने
एक स्वप्न सी कल्पना को
जिसे कहीं पाया नहीं था
उस चिरकालीन खोज का
साकार सुन्दर परिणाम हो तुम

इस तन-मन जैसे अपने
आँखों में बसे सुन्दर सपने
दीपशिखा के जैसे उज्ज्वल
प्रकाशित करते दर्पण-तल
मेरा ही एक नाम हो तुम

धागे की माला के मोतियों से
प्रस्फुटित असंख्य ज्योतियों से
प्रकृति की अनोखी रचना
और इस मन की प्यारी मृगतृष्णा
मन का स्नेहिल आयाम हो तुम
 
मेरे हृदय की उछलती-गिरती लहरों को
स्थायी करते विराम हो तुम
 
श्वेत-पत्र दुग्ध-सरिता जैसे
मेरे मन के निर्मल जीवन
ओस-बिन्दु से पारदर्शी
और सुगन्धित करते मधुवन
मेरे मन जैसे निष्काम हो तुम

बाल्यकाल के मधुर हास की
किशोर मन के कल्पित आभास की
यौवन की प्रस्तर परिभाष की
तन की एक-एक श्वास की
उगती उषा-निशा-ढलती शाम हो तुम