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तुम तो आकाश हो / सरोज सिंह

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नेह के नीले एकांत में
क्षितिज की सुनहरी पगडंडी पर
चलते हुए...
तुम्हारे होने या ना होने को
सूर्यास्त से सूर्योदय के बीच
कभी विभक्त नहीं कर पायी मैं!

जाने कब से
धरती पर चलती आ रही मैं
इस ज्ञान से परे, कि
तुम अपनी छ्त्रछाया में
संरक्षित करते आये हो मुझे!

अपनी थाली में परोसते रहे
मन भर अपनापन
ना होते हुए भी तुम्हारे होने का
आभास होता रहा मुझे!

ऋतुएँ संबंधों पर भी
अपना असर दिखाती है शायद
चटकती बिजली ने
तुम्हारे सिवन को उधेड़ते हुए
जो दरार डाली है
तुम्हारी श्वेत दृष्टि अब श्यामल हो उठी है!

या तुम बहुत पास हो
या कि बहुत दूर
पर वहां नहीं हो जहाँ मैं हूँ
संबंधों पर ठण्ड की आमद से
सूरज भी अधिक देर तक नहीं टिकता!

ऐसे अँधेरे से घबराकर मैं
स्मृतियों की राख में दबी
चिंगारियों को उँगलियों से
अलग कर रही हूँ
किन्तु उससे रौशनी नहीं होती
बल्कि उंगलियाँ जलतीं है!

तुम्हे दस्तक देना चाहती हूँ
पर तुम तो आकाश हो ना
कोई पट-द्वार नहीं तुम्हारा
बोलो...तो कहाँ दस्तक दूँ?
जो तुम सुन पाओ!