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तुम दुहरे टूट रहे / रामगोपाल 'रुद्र'

तुम दुहरे टूट रहे साथी!

पाँखों की चाह मचलती है,
तलछट में बाती जलती है;
मावस की रात दहलती है!
हमदर्द निगाहों को भी तब, मुस्कान तुम्हारी छलती है;
अपनों से क्या, सपनों से क्या, तुम ख़ुद से छूट रहे, साथी!

यह किसने किसको जीता है?
पनघट पर भी घट रीता है;
मधु भी माहुर-सा तीता है;
अपनी न सही, पर मेरी तो देखो, मुझ पर क्या बीता है!
यह किस अपने को भरने को, अपना घर लूट रहे, साथी?