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तुम नग़्मा-ए-माह हो / बहज़ाद लखनवी

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तुम नग़्मा-ए-माह हो अन्जुम हो तुम सोज़-ए-तमन्ना क्या जानो
तुम दर्द-ए-मुहब्बत क्या समझो तुम दिल का तड़पना क्या जानो

सौ बार अगर तुम रूठ गये हम तुम को मना ही लेते थे
इक बार अगर हम रूठ गये तुम हम को मनाना क्या जानो

तख़्रीब-ए-मुहब्बत आसाँ है तामीर-ए-मुहब्बत मुश्किल है
तुम आग लगाना सीख गये तुम आग बुझाना क्या जानो

तुम दूर खड़े देखा ही किये और डूबने वाला डूब गया
साहिल को तुम मन्ज़िल समझे तुम लज़्ज़त-ए-दरिया क्या जानो