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तुम नहीं सुधरोगे / अनीता मिश्रा

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सोचा आज अपने दिल
की कह ही डालूँ
तंग आ गयी हूँ
रोज-रोज के
खीच-खीच से
तुम हो कि मानते नहीँ
मैं हूँ कि उलझ ही जाती हूँ तुमसे,

घर को बस कबाड़
खाना बना डालते हो
जूते कहीं, चप्पल उल्टी
मेज पर चाय के कप
अखबार के
पन्ने बिखरे
क्यों करते हो ऐसा तुम?
छोड़कर चले जाते हो
ऑफिस
मैं दिन भर पिसती हूँ,
तौलिया, कपड़े तमाम
चीज करीने
से रखती हूँ
तुम आओगे थके तो
सब सही मिलेगा तुम्हे।
पर क्या मेरे बारे में सोचते हो?
मैं कब खुश रहूँगी
नहीं ना जानती हूँ
तुम कभी नहीं सुधरोगे,
आखिर थक हार कर
नये सिरे से फिर कुछ सोचने लगती हूँ।