Last modified on 8 मई 2011, at 22:11

तुम पुकारते रहे / नरेश अग्रवाल

सचमुच था मैं अब भी लापरवाह
सजगता मुझे बुलाती रही
बहुत सारा कुछ था इन निर्जीवों में भी
और उनकी प्रतीक्षा
कोई आये और निहारे उन्हें
प्रशंसा करे उनकी
और अफसोस मेरे बिना नाम के मित्रों
मैं पहुँच नहीं पाया तुम तक
गड़ाये रहा कदमों को सख्त धरती पर ही
और तुम पुकारते रहे मुझे ।