भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो / नरेश सक्सेना

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:24, 19 मई 2011 का अवतरण ("तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो / नरेश सक्सेना" सुरक्षित कर दिया ([edit=sysop] (indefinite) [move=sysop] (indefinite)))

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कल तुम्हें सुनसान अच्छा लग रहा था
आज भीड़ें भा रही हैं
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो

गोल काले पत्थरों से घिरे उस सुनसान में उस शाम
गहरे धुँधलके में खड़े कितने डरे
कँपते थरथराते अंत तक क्यों मौन थे तुम

किस तिलस्मी शिकंजे के असर में थे
जिगर पत्थर, आँख पत्थर, जीभ पत्थर क्यों हुई थी
सच बताओ, उन क्षणों में कौन थे तुम
कल तुम्हें अभिमान अच्छा लग रहा था
आज भिक्षा भा रही है
तुम वही मन हो कि कोई दूसरे हो ।