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"तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो / सुरेश चंद्रा" के अवतरणों में अंतर

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तुम्हे जो नभ कहता  
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तुम्हें जो नभ कहता  
 
बरस जाती रचती हुई घटायें  
 
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मेरी शुष्कता पर, समूची की समूची तुम
 
मेरी शुष्कता पर, समूची की समूची तुम
  
कहता वृक्ष जो तुम्हे
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कहता वृक्ष जो तुम्हें
 
सर्वस्व लुटा देती  
 
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तुम जड़ों के अवरोह तक
 
तुम जड़ों के अवरोह तक
  
नदी कहता तुम्हे
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नदी कहता तुम्हें
तुम मुझ तक मुझमे घुलकर
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तुम मुझ तक मुझमें घुलकर
 
खो देती अस्तित्व अपना
 
खो देती अस्तित्व अपना
  
तुम्हारी प्रकृति अंततः प्रदेय है, स्त्री !
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तुम्हारी प्रकृति अंततः प्रदेय है, स्त्री!
प्रयुक्त है तुम मे शक्ति देने और केवल देते रहने की
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प्रयुक्त है तुम में शक्ति देने और केवल देते रहने की
  
 
और मैं पुरुष, अपनी प्रथम प्रवृति से  
 
और मैं पुरुष, अपनी प्रथम प्रवृति से  
 
जानता हूँ केवल, सोखना, भक्षणा और लीलना
 
जानता हूँ केवल, सोखना, भक्षणा और लीलना
  
मैं मात्र सम्मोहन का कण हूँ तारिकाधुली में  
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मैं मात्र सम्मोहन का कण हूँ तारिकाधूलि में  
प्रिय तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो !!
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प्रिय तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो.
  
 
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13:48, 20 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

तुम्हें जो नभ कहता
बरस जाती रचती हुई घटायें
मेरी शुष्कता पर, समूची की समूची तुम

कहता वृक्ष जो तुम्हें
सर्वस्व लुटा देती
तुम जड़ों के अवरोह तक

नदी कहता तुम्हें
तुम मुझ तक मुझमें घुलकर
खो देती अस्तित्व अपना

तुम्हारी प्रकृति अंततः प्रदेय है, स्त्री!
प्रयुक्त है तुम में शक्ति देने और केवल देते रहने की

और मैं पुरुष, अपनी प्रथम प्रवृति से
जानता हूँ केवल, सोखना, भक्षणा और लीलना

मैं मात्र सम्मोहन का कण हूँ तारिकाधूलि में
प्रिय तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो.