Last modified on 20 अक्टूबर 2017, at 13:48

तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो / सुरेश चंद्रा

Anupama Pathak (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:48, 20 अक्टूबर 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

तुम्हें जो नभ कहता
बरस जाती रचती हुई घटायें
मेरी शुष्कता पर, समूची की समूची तुम

कहता वृक्ष जो तुम्हें
सर्वस्व लुटा देती
तुम जड़ों के अवरोह तक

नदी कहता तुम्हें
तुम मुझ तक मुझमें घुलकर
खो देती अस्तित्व अपना

तुम्हारी प्रकृति अंततः प्रदेय है, स्त्री!
प्रयुक्त है तुम में शक्ति देने और केवल देते रहने की

और मैं पुरुष, अपनी प्रथम प्रवृति से
जानता हूँ केवल, सोखना, भक्षणा और लीलना

मैं मात्र सम्मोहन का कण हूँ तारिकाधूलि में
प्रिय तुम सर्वदा, समर्पण का अक्षुण्ण संसार हो.