भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तू नईं आई / कृष्ण वृहस्पति

Kavita Kosh से
आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:11, 12 जून 2017 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीं दिन दोपारां
तूं छोडया'ई
म्हारै बिस्तरां मांय
एक नानो सो सुपनों।

बीं स्यूं पै'ली भी
अेकर
तूं भूलगी ही
तावल्यां मांय
कान रो झूमको।

म्हैं जाणै हो
कै तू आसी पाछी
बीं झूमकै दाई लैंवण नै
ओ सुपनो बी।

ठाह ई नीं
कित्ता बरस बीतग्या
म्हैं अर तेरो सुपनों
जौवां हा बाट
तेरै पाछै आवण री।