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"तू फूल की रस्सी न बुन / कुँअर बेचैन" के अवतरणों में अंतर
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आवाज़ को / आवाज़ दे | आवाज़ को / आवाज़ दे |
18:27, 17 जनवरी 2008 के समय का अवतरण
आवाज़ को / आवाज़ दे
ये मौन-व्रत /अच्छा नहीं।
जलते हैं घर
जलते नगर
जलने लगे / चिड़यों के पर,
तू ख्वाब में
डूबा रहा
तेरी नज़र / थी बेख़बर।
आँख़ों के ख़त / पर नींद का
यह दस्तख़त / अच्छा नहीं।
जिस पेड़ को
खाते हैं घुन
उस पेड़ की / आवाज़ सुन,
उसके तले
बैठे हुए
तू फूल की / रस्सी न बुन।
जर्जर तनों / में रीढ का
यह अल्पमत / अच्छा नहीं।
है भाल यह
ऊँचा गगन
हैं स्वेदकन / नक्षत्र-गन,
दीपक जला
उस द्वार पर
जिस द्वार पर / है तम सघन।
अब स्वर्ण की / दहलीज़ पर
यह शिर विनत / अच्छा नहीं
-- यह कविता Dr.Bhawna Kunwar द्वारा कविता कोश में डाली गयी है।