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तू मुझ को चाहता है इस मुग़ालते में रहूँ / सय्यद काशिफ़ रज़ा

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तू मुझ को चाहता है इस मुग़ालते में रहूँ
कभी करम भी किया कर कि आसरे में रहूँ

जो मेरी सोच को गहराइयों की शिद्दत दे
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म किसी ऐसे सोनेहे में रहूँ

जो मेरी रूह की बरफ़ाब रूत को हिद्दत दे
तमाम उम्र तिरे कुर्ब दाएरे में रहूँ

जो तेरे क़ुर्ब के लम्हों से मिलता जुलता हो
मैं वक़्त तोड़ के एक ऐसे सिलसिले में रहूँ

वो जो मक़ाम है तेरा मिरी कहानी में
उसी मक़ाम पे मैं तेरे तजि़्करे में रहूँ

अब इस क़दर तो न हो इंतिज़ार-ए-दीद तिरा
कि मुंतज़िर तिरे ख़्वाबों का रतजगे में रहूँ

शरीफ कोई न हो जिस में तेरा मेरे सिवा
मैं तुझ से मुंसलिक इक ऐसे वाक़िए में रहूँ