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तू ही को चाहत वे चित मौ अरु तू ही हियो उनपै ललचावत / नेवाज़

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तू ही को चाहत वे चित मौ अरु तू ही हियो उनपै ललचावत ।
मैं ही अकेली न जानत हूँ यह भेद सबै ब्रजमँडली गावत ।
कौन सँकोच रहो री नेवाज जो तू तरसै औ उन्हैँ तरसावत ।
बावरी जो पै कलंक लग्यो तो निशँक ह्वै काहे न अँक लगावत ।


नेवाज़ का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।