Last modified on 2 फ़रवरी 2009, at 22:13

तृतीय प्रकरण / श्लोक 1-7 / मृदुल कीर्ति

 अद्वैत आत्मिक अमर तत्व से, सर्वथा तुम् विज्ञ हो,
क्यों प्रीति, संग्रह वित्त में, ऋत ज्ञान से अनभिज्ञ हो.---१

ज्यों सीप के अज्ञान से,चांदी का भ्रम और लोभ हो,
त्यों आत्मा के अज्ञान से,भ्रमित मति, अति क्षोभ हो.----२

आत्मा रूपी जलधि में, लहर सा संसार है,
मैं हूँ वही, अथ विदित, फ़िर क्यों दीन, हीन विचार हैं.------३

अति सुन्दरम चैतन्य पावन, जानकर भी आत्मा,
अन्यान्य विषयासक्त यदि,तू मूढ़ है, जीवात्मा.-------४

आत्मा को ही प्राणियों में,आत्मा में प्राणियों
आश्चर्य !ममतासक्त मुनि, यह जान कर भी ज्ञानियों.-----५

स्थित परम अद्वैत में, तू शुद्ध, बुद्ध, मुमुक्ष है,
आश्चर्य ! है यदि तू अभी, विषयाभिमुख कामेच्छु है.-----६

काम रिपु है ज्ञान का, यह जानते ऋषि जन सभी,
आश्चर्य ! कामासक्त हो सकता है मरणासन्न भी.------७