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तृष्णा / रामेश्वर शुक्ल 'अंचल'

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मैं वन का क्रीड़ातुर पंछी बोल उठा मधुवन में,
छलक उठा है प्राणों का उद्दीपन विजन-विजन में।
आज जगी रजनी के मन में जवाकुसुम की ज्वाला,
नग्न अरुणिमा ने मुखरित हो दिग-दिगंत रंग डाला।
मानवती मधुकरियों ने अपने मधुकलश उतारे,
विकल बनी फिरतीं नव वस्तु का सोम-प्रवाह सँवारे।
जब मनसिज के पुलक-पुंज से आवृत्त हुई नवेली,
जब ये वल्लरियाँ किरणों-सी आकुल हुई अकेली,
जब परिमल की अमराई मे मलय पवन कुछ डोला,
तब इस एकाकी पंछी ने आकुल अंतर खोला।
जब पराग की धन जाली में मत्त कोयलिया बोली,
तब मैंने अंगराई लेकर अपनी जलन टटोली।
जब मधुस्नात चपल नयनों से जुही कली बल खाई,
जब अपनी व्याकुल वेणी लख विजनवती सकुचाई,
तब भर प्रखर प्यास अन्तर मे निकल पड़ा मैं रीता,
किसी निरुपमा की सुधि जागी गंध-अंध-रस-पीता।
मधु के - केशर के मुहूर्त मे वही लालसा जलती,
वही वासना झमक आह! झंझा में रोती चलती।
एक एक विहगी ने पहना जब कुंकुम का बाना,
जब कुछ प्रथम प्रथम आकुल हो पुलक-मर्म पहचाना,
कितनी वन-कन्याओं ने जब नव-नव यौवन पाया,
कितने पंछी गेह सिधारे तज सौरभ की माया।
जब केशर की रेणु लपेटे विहगी घर-घर डोली,
एक अचेतन सुख में डूबी, भरी हमारी टोली।
उधर नीप-द्राक्षा-कुंजों में स्वर्ण मेघ घिर आए,
इधर नीड़ में नग्न माधुरी लख पंछी भरमाए।
तब मैं चिर वंचित प्राणी भी बेसुध-सा उन्मत्त-सा,
विटप-विटप मे डोल उठा अगणित मधुओं का प्यासा
अपना पीड़ा में घुल-घुलकर मैं मधु-चक्र रचाता,
दूरागत वंशी के स्वर-सा व्याकुलता भर लाता।
इस चिर परिचित व्याकुलता में निखर उठा वन का वन,
कुंज-कुंज में जलता ज्योतित मेरा दीपक-सी मन।
फिर मैंने अपनी तृष्णा में ज्वाला-सी धधका दी,
मुकुल-भार से आनत वन-कुंजों मे आग लगा दी।
और लुटा दी मुक्त कंठ से यह विषाद की वाणी,
यहाँ! आज तो एकाकी हूँ, कल की किसने जानी!