तेज़ आँधी रात अँधयारी अकेला राह-रौ
बढ़ रहा है सोचता डरता झिजकता राह-रौ
मंज़िलें सम्तें बदलती जा रही हैं रोज़ ओ शब
इस भरी दुनिया में है इंसान राह-रौ
कुछ तो है जो शहर में फिरता है घबराता हुआ
बे-ख़बर वरना भरे जंगल से गुज़रा राह-रौ
खिड़कियाँ खुलने लगीं दरवाज़े वा होने लगे
जब भी गुज़रा राह से कोई सजीला राह-रौ
ख़िज्र की सी उम्र वरना कैसे तन्हा काटते
बे-सहारा रास्तों का हैं सहारा राह-रौ
बख़्श ही दे कोई शायद गेसुओं की नर्म छाँव
हर नई बस्ती में थोड़ी देर ठहरा राह-रौ
कोई मंज़िल आख़िरी मंज़िल नहीं होती ‘फ़ुज़ैल’
ज़िंदगी भी है मिसाल-ए-मौज-ए-दरिया राह-रौ