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तेरह / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'

अरे! मन्दिर में किस पाषाण को तुमने बिठाया है?
मस्जिद में किस अल्लाह को तुमने बुलाया है?
मैं पढ़ा कलमा, मगर वो कुछ नहीं कहते।
जिनके कदम मेरी पुकारों पर नहीं बढ़ते।
कह रहा हूँ वो नहीं भगवान होता है।
जो तान चादर खूब गहरी नींद सोता है।

देखना मेरा वही भगवान होगा
जो मेरे हुकार पर भर प्राण देगा
और बन साया रहेगा साथ ही
आयगा! अब तक न आया है।

चाह कर मानव चढ़ा है चाँद पर
चाह कर मानव न क्या क्या कर सका ?
इस दलित पाषाण को दिल में बिठा कर
हाय मैं न जी सका न मर सका।
याद भूलूगा जिस दिन, आयगा!
उस दिन बुलाया है।