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तेरा दोष नहीं, जाने क्यों मेरा मन भटका करता है / संदीप ‘सरस’

तेरा दोष नहीं, जाने क्यों मेरा मन भटका करता है,
मैं जाने अनजाने ही परिचय को प्यार समझ बैठा था।।

जब-जब टेढ़ी नज़र चाँद की तुम पर हुई बहुत अखरा था।
तेज हवाएं तेरा आँचल छूकर गई बहुत अखरा था।
रेती के आँचल पर मैंने जब जब तेरा नाम लिखा था,
कोई लहर तुझे छूने को तत्पर हुई बहुत अखरा था।

अपराधी मैं हूँ मुझको सीमाओं का अनुमान नहीं था,
अनायास ही मैं तुझपे अपना अधिकार समझ बैठा था।1।

हर आहट पर मुझको तेरे आने का आभास मिला था।
लावारिस झूठे सपनों के सजने को आकाश मिला था।
आख़िर साबित हुई छलावा कभी यहाँ थी कभी वहाँ थी,
मेरे आँसू पी जाने को तुझे कहाँ अवकाश मिला था।

कस्तूरी के लिए बेचारा मन मृग सा छटपटा रहा है,
मैं तेरी अठखेली को सच्चा मनुहार समझ बैठा था।।

संकल्पो के पहरे लगवा दूँगा मैं सपनों के द्वारे।
सावधान कर दूँगा अधरों को, ना तेरा नाम पुकारें।
जान गया हूँ यह अँधेर नगरी है इसका चौपट राजा ,
अंधों की नगरी में आखिर दर्पण कैसे बिकें बिचारे।

सपनो का बाजार सजा कर, होती रिश्ते की नीलामी,
मैं तो इसको भावों का सच्चा संसार समझ बैठा था।।