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तेरी खट्टी-मिट्ठी नोंक झोंक से / कबीर शुक्ला

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तेरी खट्टी-मिट्ठी नोंक-झोंक से जीने में लज़्ज़त है।
तेरी मुहब्बत तेरी इनायत से ही जीने में बरक़त है।

इशारा-ए-तबस्सुम पाकर ही सहर-ए-गुल है होती,
भले ही इस ख़ाकदाँ को लगे ये दस्ते-क़ुदरत है।

तेरे गेसुओं के साये में बेहिरास हो सूरज है सोता,
ख़ल्क सोचती है दिन रात का होना मशीयत है।

तेरी चश्मे-मगयूँ, नुक्तो-लब शराबे-दस्ते-साकी से,
तेरी चाल मस्तानी तेरी एक-एक अदा सबाहत है।

वस्ले-मनो-तू मेरे वफ़ा की मुहब्बत की है मेहर,
तू है तो निग़ारे-हयात वरना जीने में अज़ीयत है।

तू चारे-इंतेजार मज़ाके-जिन्दगी तू ही है जुस्तजू,
औजे़-ख़याल, सुकून-ए-कल्ब तू मेरी सदाकत है।

शक्ले-ज़मील का ज़िला है हर इक शै में जज़्ब,
आशियाँ-ए-कल्बे- 'कबीर' में शम्मा-ए-उल्फ़त है।