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तेरी जुस्तजू में भटकता रहा हूँ / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर

तेरी जुस्तजू में भटकता रहा हूँ
तजर्रुद में अपने तड़पता रहा हूँ

सियाह रातों में भी मैं बनके सितारा
तुझे देखने को चमकता रहा हूँ

कभी तूने होंठों से चूमी थी गर्दन
उसी से अभी तक महकता रहा हूँ

तुम्हारे लबों पर तबस्सुम चढ़ी जब
परिंदों के जैसे चहकता रहा हूँ

दुआओं में मांगी थी तेरी ही सूरत
मैं रमजान में रोजे रखता रहा हूँ