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तेरी तलब थी तेरे आस्ताँ से लौट आए / खातिर ग़ज़नवी

तेरी तलब थी तेरे आस्ताँ से लौट आए
ख़िज़ाँ-नसीब रहे गुलसिताँ से लौट आए

ब-सद-यकीं बढ़े हद्द-ए-गुमाँ से लौट आए
दिल ओ नज़र के तक़ाजे़ कहाँ से लौट आए

सर-ए-नियाज़ को पाया न जब तेरे क़ाबिल
ख़राब-ए-इश्क़ तेरे आस्ताँ से लौट आए

क़फ़स के उन्स ने इस दर्जा कर दिया मजबूर
के उस की याद में हम आशियाँ से लौट आए

बुला रही हैं जो तेरी सितारा-बार आँखें
मेरी निगाह न क्यूँ कहकशाँ से लौट आए

न दिल में अब वो ख़लिश है न ज़िंदगी में तड़प
ये कह दो फिर मेरे दर्द-ए-निहाँ लौट आए

गुलों की महफ़िल-ए-रंगीं में ख़ार बन न सके
बहार आई तो हम गुलसिताँ से लौट आए

फ़रेब हम को न क्या क्या इस आरज़ू ने दिए
वही थी मंज़िल-ए-दिल हम जहाँ से लौट आए