भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है /कुँवर बेचैन
Kavita Kosh से
Abhishek Amber (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:29, 23 अक्टूबर 2016 का अवतरण ('KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुँवर बेचैन |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> तेर...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
KKGlobal}}
तेरी हर बात चलकर यूँ भी मेरे जी से आती है
कि जैसे याद की खुश्बू किसी हिचकी से आती है।
कहाँ से और आएगी अक़ीदत की वो सच्चाई
जो जूठे बेर वाली सरफिरी शबरी से आती है।
बदन से तेरे आती है मुझे ऐ माँ वही खुश्बू
जो इक पूजा के दीपक में पिघलते घी से आती है।
उसी खुश्बू के जैसी है महक। पहली मुहब्बत की
जो दुलहिन की हथेली पर रची मेंहदी से आती है।
हजारों खुशबुएँ दुनिया में हैं पर उससे छोटी हैं
किसी भूखे को जो सिकती हुई रोटी से आती है।
मेरे घर में मेरी पुरवाइयाँ घायल पड़ी हैं अब
कोई पछवा न जाने कौन सी खिड़की से आती है।
ये माना आदमी में फूल जैसे रंग हैं लेकिन
'कुँअर' तहज़ीब की खुश्बू मुहब्बत से ही आती है।