भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तोड़ो-तोड़ो , जितनी भी हैं अब तोड़ो / दीपक शर्मा 'दीप'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:00, 16 सितम्बर 2016 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार= दीपक शर्मा 'दीप' }} {{KKCatGhazal}} <poem> तोड़...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
तोड़ो-तोड़ो , जितनी भी हैं अब तोड़ो
हद की आँखे खुलने तक..बेढब तोड़ो I
 
मज़हब केवल बाँट रहा है दुनिया को
माला-घंटी-मंदिर-मस्ज़िद सब तोड़ो I
 
आधी रात चलें तो , चलने पाएँ हम
करतूतों से लेकर हर करतब , तोड़ो I
 
देखो केवल तोड़-ताड़ के रखना मत
गड्ढे में दफ़ना के आना..जब तोड़ो I
 
ऐसे-वैसे , जल्दी-वल्दी मत करना
घात लगाओ ,मौक़ा देखो तब तोड़ो I