भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तोड़ो-तोड़ो , जितनी भी हैं अब तोड़ो / दीपक शर्मा 'दीप'

Kavita Kosh से
द्विजेन्द्र द्विज (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:32, 18 सितम्बर 2016 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
तोड़ो- तोड़ो, जितनी भी हैं अब तोड़ो
हद की आँखे खुलने तक बेढब तोड़ो
 
मज़हब केवल बाँट रहा है दुनिया को
माला- घंटी- मंदिर- मस्ज़िद सब तोड़ो
 
आधी रात चलें तो, चलने पाएँ हम
करतूतों से लेकर हर करतब, तोड़ो
 
देखो केवल तोड़- ताड़ के रखना मत
गड्ढे में दफ़ना के आना जब तोड़ो
 
ऐसे- वैसे, जल्दी- वल्दी मत करना
घात लगाओ, मौक़ा देखो तब तोड़ो