भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तो... / समीर बरन नन्दी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बोरी खोल
उतर जाता हूँ
पाण्डुलिपियों के जंगल में ।

लपक - लपक उठाता हूँ
कभी चटगाँव कभी दिल्ली वाली,
कभी चुपके बलिया वाली,
जिसमें बैठी है काली बिल्ली
या कभी नई वाली
जिसमें पहाड़ रो रहे है ।

मीनारे नज़र से बगैर पढ़े
उन पंक्तियों से बतियाता हूँ
जिनके शब्द और शक्ल एक है
फलक के तारों की तरह उन्हें छूता हूँ

कभी उम्र को खरगोश की तरह
पकड़ना हो तो बोरी खोलता हूँ
और पाण्डुलिपियों के जंगल में उतर जाता हूँ ।