भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

तो तुम्हीं कहो / धनंजय सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कोई उजली भीगी बदली
आकर कन्धे पर झुक जाए
तो तुम्हीं कहो वह भीगापन
जी लूँ या तन-मन जलने दूँ ?

मैं प्यास छिपाए फिरता हूँ
बादल से, सरिता जल से भी
यद्यपि अधरों का परिचय है
बिजली से भी, उत्पल से भी

कोई हिम-खण्ड तपन मेरी
हरने को आतुर हो जाए
तो तुम्हीं कहो वह शीतलता
पी लूँ या कण-कण ढलने दूँ ?

अनकही हमारी सब बातें
ये दीवारें सुन लेती हैं
फिर अपनी सुविधाओं वाला
ताना-बाना बुन लेती हैं

यदि तोड़ भ्रमों का इन्द्रजाल
कोई वातायन खुल जाए
तो तुम्हीं कहो तम की परतें
मैं छीलूँ या भ्रम पलने दूँ ?