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थरथराती हुई उँगलियों से / राकेश खंडेलवाल

नैन की झील में पड़ रहे बिम्ब में
चित्र आये हैं ऐसे सँवरते हुए
थरथराती हुई उँगलियों से कोई
नाम कागज़ पे लिखता संभलते हुए

जो टँगीं हैं पलक की घनी झाड़ियों
पर हैं परछाईयाँ खो चुकी अर्थ भी
छटपटाती हुईं झूलने के लिये
थाम कर डोर कोई भी संदर्भ की
स्पर्श की आतुरा और बढ़ती हुईं
छू लें बिल्लौर सा झील का कैनवस
ज्ञात शायद न हो, भावना से रँगी
पर्त इस पर चढ़ी है रजत वर्क सी

याद का कोई आकर न कंकर गिरे
रंग रह जायें सारे बिखरते हुए

काँपते होंठ पर बात अटकी हुई
न कही जा रही, न ही बिसरे जरा
चित्र रेखाओं में इक उभरता हुआ
धुन्ध में डूब कर है कुहासों घिरा
एक पहचान के तार को खोजता
जोकि ईज़िल की खूँटी से बाँधे उसे
ओट से चिलमनों की रहा झाँकता
बन के जिज्ञासु, थोड़ा सा सहमा डरा

कोई लहरों पे सिन्दूर रँगता रहा
ढल रही शाम को चित्र करते हुए

है किसी एक आभास की सी छुअन
होती महसूस लेकिन दिखाई न दे
धमनियों में खनकती हुईं सरग़में
झनझनाती है लेकिन सुनाई न दे
मन के तालाब से धुल गये वस्त्र से,
भाव आतुर टँगें शब्द की अलगनी
नैन लिखते हुए नैन के पत्र पर
बात वह जो किसी को सुनाई न दे

स्वप्न आकर खड़े हो रहे सामने
एक के बाद इक इक उभरते हुए