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थाकी गति आँगन की मति परि गई मँद / हरिश्चन्द्र

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थाकी गति आँगन की मति परि गई मँद ,
सूखि झाँझरी सी ह्वै कै देह लागी पियरान ।
बाबरी सी बुद्धि भई हँसी काहू छीन लई ,
सुख के समाज जित तित लागे दूर जान ।
हरीचँद रावरे बिरह जग दुख भयो ,
भयो कछु और होनहार लागे दिखरान ।
नैन कुम्हिलान लागे बैन हू अथान लागे ,
आओ प्रान नाथ अब प्रान लागे मुरझान ।

हरिश्चन्द्र का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल मेहरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।