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थार में प्यास / ओम पुरोहित ‘कागद’

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जब लोग गा रहे थे
पानी के गीत
हम सपनों में देखते थे
प्यास भर पानी।
समुद्र था भी
रेत का इतराया
पानी देखता था
चेहरों का
या फिर
चेहरों के पीछे छुपे
पौरूष का ही
मायने था पानी।

तलवारें
बताती रहीं पानी
राजसिंहासन
पानीदार के हाथ ही
रहता रहा तब तक।

अब जब जाना
पानी वह नहीं था
दम्भ था निरा
बंट चुका था
दुनिया भर का पानी
नहीं बंटी
हमारी अपनी थी
आज भी थिर है
थार में प्यास।