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थोड़ी-सी ज़मीन बगैर आसमां / अमित धर्मसिंह

यह थोड़ी-सी ज़मीन
फुटपाथ पर हो सकती है
किसी पुल के नीचे हो सकती है
बस्तियों के बाहर हो सकती है
सड़क के किनारे या
रेलवे ट्रैक के बराबर में हो सकती है
ये कुछ ऐसी ज़मीने हैं
जिनका कोई आसमां नहीं होता।

बारिश इस ज़मीन पर रहने वालों के
सिर तक सीधे पहुँचती है
हवा इनकी झुग्गी-झोपड़ियों से
खुलकर मज़ाक करती है
सर्दी किसी बुरी आत्मा की तरह
इनकी हड्डियों में आ समाती है
सूरज इनमें जितना
प्राणों का संचार करता है
उससे ज़्यादा इनको जलाता है
दिन इनके लिये
नींद से डराकर उठाने वाले
किसी अलार्म से कम नहीं होता
जो सिर्फ़ यह बताने के लिए निकलता है-
चल उठ बे! काम पर चलने का वक़्त हो गया।

और हाँ! यह थोड़ी-सी ज़मीन
खेती की भी हो सकती है
और मरघट की भी
एक में मुर्दे दफ़्न होते हैं
तो दूसरी में ज़िंदा लोग
थोड़ा-थोड़ा रोज दफ़्न होने के लिए
पहुंचते रहते हैं
सुबह सवेरे से ही देर रात तक।
इन ज़मीनों का भी कोई आसमां नहीं होता॥