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दंगा रोॅ शहर: भागलपुर / मृदुला शुक्ला

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हम्में चुप्पे रहै छी, जबेॅ लोग कहै छै
हमरोॅ शहरोॅ में लोग नै वसै छै;
वहाँ बसै छै हैमानियत, वहाँ रहै छै वहशी
लाशोॅ के खेती पर लोग वहाँ पलै छै।

कहै के हक छै हुनका, सोचै के एक दिमागो,
बोलै के गज भर जुबानी।
यहीं सें लोगें कहै छै,
हमरा शहरोॅ में लोग नै बसै छै

भौंचकके खाड़ी छी हम्मू,
कहाँ नुकैलोॅ छेलै भागलपुरोॅ के,
उजरोंॅ-उजरोॅ मांटी में,
कारोॅ-कारोॅ रं इ फसल!
कहाँ छिपलोॅ छैलै इ इबारत,
विक्रमशिला के सफेद पन्ना में,
केना लागलै कलंको के काजल!

डारी-डारी फुदकै छेलै गौरया,
फूलोॅ-फूलोॅ पर ओस के मोती।
पत्ती-पत्ती में प्रेम के समुन्दर;
ऐनां रं निर्मल छेलै मन के जोती।
फिरु कैन्हें हमरोॅ इ शहर;
आय धुइंया-धुइंया रं लागै छै

गंगा के किनारोॅ; मस्जिद के अजान के नगर
कैन्हें आय मौतोॅ के कुइयाँ रं लागै छै
एकोॅ के हल बैल; एकोॅ के खेत छेलै;
हरियैलोॅ धरती पर दोनोॅ के सपना पलै छेलै;
एके काटै छेलै; दोसरा बुनै छेलै;
फूलोॅ रं देहोॅ पर रिस्ता के रेसम सजै छेलै
आय कैन्हें; ढेर सीनी सपना रुसलोॅ छै यहाँ
सरंग के अनगिन तारा कैन्हें टूटलो छै यहाँ?

सांसोॅ के जात्रा, जिनगी के मेला में
केकरोॅ-केकरोॅ साथी छुटलोॅ छै यहाँ।
सुन्नर उ रेशमी रिसता, तार-तार होय गेलै।
प्रेमोॅ के मोलोॅ पर उ के छेलै
जौनें नफरत के जहर घोली गेलै?

कही रहलोॅ छै हमरोॅ इ दुलरुआ शहर -
हम्में तेॅ छी शिकार साजिश के,
नै दिहोॅ हमरा नफरत के जहर।
हम्मू चुप्पे रहै छी; जबेॅ लोग कहै छै -
हमरा शहरोॅ में लोग नै बसै छै।