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दधीचि पिता / सत्य मोहन वर्मा

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जब तक तुम्हारी ममतामयी काया थी
मेरे सर पर वट - वृक्ष की छाया थी
जिसके तले मैंने
अपनापन, अवज्ञा और आक्रोश
अत्यंत सहजता से जिए

आज अपने अभिशप्त जन्मदिन पर
तुम्हारी अस्थियां संचित करते हुए
मन करता है
इनसे वज्र बना लूँ
सांसारिक भयावहता से लड़ने के लिए

किन्तु दधीचि- पिता
अस्थियां ही क्यों
स्मृतियाँ भी तो वज्र बन सकती हैं
और निबिड़ अँधेरे में
दामिनी सी चमक सकती हैं ..