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दबी हुई है मेरे लबों में कहीं / अली सरदार जाफ़री

दबी हुई है मेरे लबों में कहीं पे वो आह भी जो अब तक
न शोला बन के भड़क सकी है न अश्क-ए-बेसूद बन के निकली

घुटी हुई है नफ़स की हद में जला दिया जो जला सकी है
न शमा बन कर पिघल सकी है न आज तक दूध बन के निकली

दिया है बेशक मेरी नज़र को वो परतौ जो दर्द बख़्शे
न मुझ पर ग़ालिब ही आ सकी है न मेरा मस्जूद बन के निकली