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दब न जाऊँ मैं कहीं मील का पत्थर बन कर / ज्ञान प्रकाश विवेक

दब न जाऊँ मैं कहीं मील का पत्थर बनकर
मुझको उड़ जाने दे आवार बवण्डर बनकर

रेत पे सोये सफ़ीनों को जगाने के लिए
मैं जो आया तो फिर आऊँगा समन्दर बनकर

वो सितारा कि जो कल रात हुआ था अन्धा
गिर गया होगा ज़मीं पे कहीं पत्थर बनकर

किसी पोरस से मिलेगा तो सहम जाएगा
जो मेरे मुल्क में आया है सिकन्दर बनकर

मैं वो सूरज हूँ जो पीता है अँधेरे का ज़हर
कभी सुकरात की तरह कभी शंकर बनकर

तुझको रख लूँगा हथेली पे लकीरों की तरह
तू अगर साथ चले मेरा मुकद्दर बनकर.