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दरिन्दे समय के विरुद्ध / अनिल कार्की

फिर एक बार
क्योराल<ref>कचनार </ref> खिल उठा है

जबकि अब भी बह रहा है
ह्यूँ-गल<ref>बर्फ़ वाला ठण्डा पानी</ref>
राम नदी के जल में

रेवाड़ी हवाओं से उड़ रही है रेत
भूखे पेट-सी
मरोड़ वाला भँवर बनाते हुए
सरसों के विरुद्ध
खड़ा है चीड़ का पीला क्यूर<ref>चीड़ के फलों से निकलने वाला पीला पराग (जिसके हवा में घुलने से सर दर्द होता है)</ref>

मछुवारे निकल पड़े हैं
हाथों में डोरी लिए
बल्सी के मुँह पर
चारा लगाते हुए

सबकुछ जानते, समझते हुए
पीली गदराई चखट्टे वाली महासीर<ref>पहाड़ी मछली की प्रजाति</ref>
चलने लगी है उकाल<ref>ऊपर की ओर</ref> की तरफ़
राम नदी के बहाव की
विपरीत दिशा में!

बाँज<ref>ओक</ref> के पेड़ों पर
सुनहरा पलाँ<ref>कोपल</ref> फूट रहा है
इस वक्त,
गेहूँ की नन्हीं बालें
ओलों से लड़ रही हैं खुले आम

आसमान बने दरिन्दे समय के विरुद्ध!

शब्दार्थ
<references/>