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दरो - दीवार के परदे उठा दो / अनिरुद्ध सिन्हा

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दरो-दीवार के परदे उठा दो
कहीं कुछ भी नहीं बदला दिखा दो

दरख्तों की ये शाखें जल रही हैं
ज़मीं का दर्द मौसम को बता दो

मेरी बस्ती में तुम आने के पहले
सुनहरे फूल का जेवर हटा दो

परिंदे भी हवा को ढूँढते हैं
शजर खामोश है शाखें हिला दो

समझने के लिए तक़दीर क्या है
लकीरें हाथ की अपनी मिटा दो